दिन भर की दौड़ धूप के बाद, चली थी जब मैं घर की ओर,
सोचा कुछ सामान ले चलूँ, राशन सब्जी फल लूँ मोल,
देखा सब्जी मंडी में तो, भीड़ बहुत थी भरी हुई,
तरह तरह की तरकारी से, दुकानें सारी सजी हुईं।
हर ओर देखने के बाद, जब नज़र पड़ी एक टट्टर पर,
सब्जी भाजी ले के बैठा, एक लड़का था उसके अंदर।
अनायास ही कदम मेरे, उसकी ही तरफ को बढ़े चले,
मन मे प्रश्नों की झड़ी लिए, जिज्ञासा से थे भरे हुए।
तपती धूप में तपा हुआ-सा, बैठा था वो बीच बाज़ार,
उससे भी कोई पूछे भाव, सब्जी भी ले ले कोई दो चार।
देख मुझे एक आस भरी, नज़रे उसने मुझपे डालीं,
आओ दीदी सब्जी ले लो, हैं सारी ताजी ताजी।
भोली सूरत देख के उसकी, पूछा, बेटा पढ़ने हो जाते?
तपती गर्मी इस महामारी में, क्यों अपना तन हो जलाते?
सुन बात मेरी चिंता में पड़ा, फिर देख के मुझको मुस्काया,
अरे दीदी ये पढ़ना लिखना, हमको रास नहीं आया।
पढ़ने ग़र मैं जाऊंगा, तो खर्चा कौन चलाएगा,
अम्मा और छोटी बहनों का, फिर बोझ कौन उठाएगा।
उसकी सब बातें सुन मैंने, फिर उसको थोड़ा समझाया,
पढ़ने लिखने के लाभ गिना, शिक्षा का महत्व बतलाया।
सुन बात मेरी फिर बोला वो, दीदी तुमने सब ठीक कहा,
बस ये बतलाओ भूखे पेट, नींद किसे आयी है भला?
था उम्र का थोड़ा कच्चा वो, पर बात तो सच्ची ही बोला,
मन द्रवित हुआ दिल छलकाया, अंतर्मन शिक्षक का डोला।
जीवन की सच्चाई पर एक, प्रश्नचिन्ह वो लगा गया,
रह गयी ठगी-सी मैं उस पल, रोटी की कीमत बता गया।
कुछ कह न सकी न प्रश्न किया, सब्जी का थैला उठा लिया,
कोई मोल भाव किये बिना, कुछ ज्यादा पैसा थमा दिया।
ये बात नहीं बस इसकी है, ऐसे ही हज़ारों फिरते हैं,
कहीं करन, कहीं रोशनी भी, रोटी के लिए भटकते हैं।
शिक्षित होगा जब हर बच्चा, नहीं अन्न को कोई तरसेगा,
न होगी गरीबी, न ही अशिक्षा, घर-घर फिर अमृत बरसेगा।