सौतन


हे सखी! मैं समझूँ दुःख तेरा, और समझूँ तेरी उलझन,

मैं सीमा हूँ इस धरती की, मत मान मुझे तू सौतन।


बहते मेरे भी अश्रुधार, जब देखूँ तुझको जोगन,

होता है वो समीप मेरे, पर व्यथित रहे मेरा मन।


जानूँ तेरे मन की पीड़ा, जब-जब आता है सावन,

तब राह देखते नयन तेरे, एक झलक दिखा दें साजन।


विश्वास तू कर, मैं भी चाहूँ, जो लिए थे उसने सात वचन,

हर पल वो उनको याद रखे, और करे उन्हीं का पालन।


सुन सखी मेरी, मन कहे मेरा, ना आयें कभी ऐसे दिन, 

ना शत्रु कभी मुझ तक आए, ना बनूँ कभी मैं एक रण।


हर पल वो करता याद तुम्हें, तुम हर पल हो उसके मन,

पर स्वयं को रोक नहीं पाता, जब सीमा पर हो दुश्मन।


सैनिक और देश की सीमा का, है अजब अनोखा बन्धन,

मैं तुमको मानूँ अपनी सखी, तुम क्यों कहती हो सौतन।


रहता है जब सीमा पर वो, करता न्यौछावर तन-मन,

जयघोष नाद करता है जब, हो शत्रु हृदय में कम्पन।


वो वीर सपूत भारती का, ना रुक पाएगा एक क्षण,

अब चूम ले उसके मस्तक को, और भेज लगाकर चन्दन।


है बाट जोहती सेना भी, अपने नायक का हर क्षण,

यदि आज न भेजा तुमने तो, नित शोक रहेगा जीवन।


एक तिलक लगाकर विदा तू कर, मत रख शंका अपने मन,

मैं विजय-तिलक संग भेजूँगी, मैंने भी लिया है यह प्रण।।


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