ऐ कोरोना तुझे नहीं है पता,
कितनों का तूने सब कुछ है छीना,
बनकर काल इस सदी का तूने,
मुश्किल किया हम सबका जीना,
कहीं माँओं की गोद हो गयी सूनी,
कहीं बच्चों से माँ का साया गया,
कहीं पिता के बुढ़ापे का सहारा छिना,
कहीं पिता ही काल में समा गया,
कोई अपना वहाँ काँधे को तरसा,
कहीं अपनों को अंतिम दर्शन न हुआ,
कितने ही साथी ने थामी साँसें,
घर-घर अश्रु ही अश्रु बरसा,
कितनी ही ‘मिट्टी’ ज़मीन को तरसी,
श्मशान में लंबी कतारें मिलीं,
कोई तरसता रहा अपनों के लिए,
बस चीख़ें और चीत्कारें मिलीं,
किसी ने सेंकी सियासी रोटी,
इंसान प्यादे की मानिंद हुआ,
जान हथेली पे लिए हुए,
कर्तव्य को पूरा करता रहा,
इंसान की बिसात नहीं कोई,
एक तुच्छ जीव ने बतलाया,
हर एक साँस में आस बंधी,
जीवन का मोल सिखलाया,
अपने बच्चों का रुदन देख,
परमेश्वर तू न पिघला,
हे परमपिता हे दुखहर्ता,
अब चमत्कार कोई दिखला।