हे प्राणप्रिया! हे जनकसुता!
तुम तनिक न संताप करना,
बंधन से मुक्ति अब दूर नहीं,
बस राम पर विश्वास करना,
छोड़ तुम्हें जब दूर गया,
कैसे भूलूँ भीषण वो दिवस,
इच्छा पूरी करने के लिए,
मृग लाने को हो गया विवश,
क्षण देख उचित तब असुरराज ने,
कपट से तुमको हर डाला,
मर्यादा सारी तोड़ तभी,
अपना विनाश भी रच डाला,
प्रिये तुम्हारे करुण रुदन के,
साक्षी थे ये विटप-गगन,
काँटों-सी चुभती है हर क्षण,
तुमको छू करके गयी पवन,
जलधि लांघ प्रिय हनुमत ने,
जब दशा तुम्हारी बतलाई,
रोम-रोम प्रतिघात भरा,
पीड़ा से आत्मा अकुलाई,
दिवस माह कटते हैं नहीं,
पीड़ा का नहीं है पारावार,
नयननीर अब मत करना,
नैया अब लगने को है पार,
अत्याचारी पापी का,
निश्चय ही होना है विनाश,
कुलदीपक नहीं रहेगा,
उस कुल का होगा सर्वनाश,
हे वैदेही! हे रामप्रिया!
कैसा ये समय है विकट आया,
दशानन से कहना तुम,
अब उसका अंत निकट आया,
मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, हे प्रिये!
कुछ और दिवस धीरज धरना,
बंधन से मुक्ति अब दूर नहीं,
बस राम पर विश्वास करना।