मजदूर

मजदूर-poem on labour day

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ना धूप देखता है ना छांव देखता है,

मजदूर है मजदूरी की राह देखता है,


ना दिन का ठिकाना ना रात की खबर,

पेट के लिए ,भटक रहा दर-बदर,

बच्चों का पेट भरके खुद-खुश वो देखता है,

मजदूर है मजदूरी की राह देखता है,


तपता है धूप में वो तपता है जैसे सोना,

तब जाके स्वर्ग जैसा बनता है घर का कोना,

खुद कर्म करके अपना जब नाम मांगता है,

अपने पसीने का वो सम्मान मांगता है।

देते नहीं तुम उसको ईनाम उसका पूरा,

परिणाम में मिला क्या, लगता है सब अधूरा,

मन में उदासी की वो एक आह देखता है,

मजदूर है मजदूरी की राह देखता है,


सब नाप डाला उसने, क्या नभ क्या धरातल,

पहुंचाया उसने तुमको मंजिल के पास हर पल,

कर्तव्य करा पूरा, मान के उसको धर्मा,

मेरी नज़र में है वो कलयुग का विश्वकर्मा,

दे के महल तुम्हें, नयी चाह देखता है,

मजदूर है मजदूरी की राह देखता है।


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