कागज़ कलम

poem on covid

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यारों मैं क्या बताऊँ अजब बात हो गई,

घटना बड़ी दिलचस्प मेरे साथ हो गई,


कोविड ने था जकड़ा हमें कर रखा था बेहाल,

ना दिन का कुछ पता था, ना ही रात का ख़याल,


था चाहिए तन को अभी कुछ और दिन आराम,

पर मन को मनाना था एक बहुत बड़ा काम,


फिर आया दिल में, लिख लिया जाए कोई विचार,

और कोरोना पर किया जाए कलम से प्रहार,


उठने के लिए जैसे ही मैंने लिया करवट,

ना था पता पत्नी सुनेगी मेरी वो आहट,


बोली तुम्हें जो चाहिए वो मुझको बताना,

इस हाल में अपने को ज़रा भी ना थकाना,


सोचा चलो अच्छा हुआ, ना रुकना पड़ेगा,

कागज कलम के वास्ते ना उठना पड़ेगा,


खुद को सम्हाल बोला मैं, एक काम करो तुम,

लाकर ज़रा देदो मुझे, कागज और एक कलम,


कहने लगी देकर मुझे मेरा मोबाईल फोन,

तकनीक युग में अब कलम से लिखता है कौन,


मैं बोला, भावों को नहीं समझे है ये तकनीक,

इसलिए लेखनी ही मुझे लग रही है ठीक,


कहने लगी लिखते ना देखा इतने साल में,

क्या आन पड़ी, उठना है जो ऐसे हाल में,


मैं बोला लिखना है अभी, आए हैं जो विचार

वरना नहीं हो पाएगा कम मेरे मन का भार,


होकर ज़रा गंभीर, उसने देखा नज़र भर,

जाने क्या सोचते हुए फिर चल दी वो बाहर,


कुछ देर में कमरे का फिर से द्वार जब खुला,

माहौल कुछ अलग सा था, मौसम भी था बदला,


मन सोचने लगा, क्या ऐसी बात आ गई,

माँ बाप सहित बेटियाँ भी पास आ गईं,


देखा चकित निगाह से जब मैंने उनकी ओर,

सब एक स्वर में कह पड़े, ना डालो मन पे जोर,


कुछ समझूँ उससे पहले ही माताजी कह पड़ीं,

टिक कर नहीं रहती कभी, कठिनाई की घड़ी,


बोले पिताजी दुख के चाहे जो भी हों कारण,

पर हो ही जाते हैं सदा उन सबके निवारण,


बस सुनता रहा, कहने का कुछ मौका ना मिला,

फिर शुरू हुआ लंबे सवालों का सिलसिला,


जब बात समझ आई, था मैं पूरी तरह दंग,

लिखने चला था वीर रस, पर हो गया था व्यंग,


सोचा था सबको दूंगा कोरोना पे नसीहत,

वो समझी लिखने जा रहा हूँ अपनी वसीयत,


बोला ना मैंने कुछ भी, सबकी बात सुन लिया,

कोविड ने हमको हँसने का एक मौका तो दिया,


लिख लेंगे फिर कभी वो कोरोना का ज्ञान हम,

पर उठ के खुद ही लायेंगे, कागज और कलम।

 
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