काले बादल By खुशबू गुप्तागीत-ग़ज़ल, पद्य यह रचना आप इन सोशल प्लेटफार्म पर भी देख सकते हैं Facebook Twitter Youtube Instagram काले बादल…गरजते हैं, बरसते हैं,गर्जन से अपनी डराते हैं,मानो कभी शांत ही न होंगे,कभी बरसते हैं कभी बस गरजते, बरसना भी जरूरी और ठहरना भी,क्रोध का वेग भी कुछ ऐसा ही है,जब ठहरता है,तो रुक जाता है उसके साथ सबकुछ,और जब बरसता है,तो उजाड़ ले जाता है बहुत कुछ, आसमां का सीना भर जाता है ,जब धरती की तपन से,तब एक दिन दिल खोलकर,जमकर बरसता है भुवन पे, फिर धीरे धीरे हवा उड़ा ले जाती है, धरती की नमी सारी,और आकाश फिर से सीना खोले,समा लेता है सबकुछ खुद में। साझा करें: