चिंतन

यह रचना आप इन सोशल प्लेटफार्म पर भी देख सकते हैं

 

व्यथित हूँ, उदास हूँ, शब्दों से आत्मसात हूँ,

दुनिया की चतुराई के ज़रा भी न पास हूँ,

 

इस मतलबी संसार में, स्वार्थ से परिपूर्ण सभी,

खुद ही में हूँ मैं, खुद की नज़र में ख़ास हूँ,

हैं सभी इस संसार में, कुछ न कुछ मतलब के लिए,

इस मौकापरस्तों की भीड़ में, शायद एक अपवाद हूँ,

 

क्या घर, क्या समाज, क्या कल, क्या आज,

मिलते हैं ऐसे ही लोग जहाँ में,

मतलब है इनको बस अपने ही मतलब से,

करते हैं काम बस अपने ही हक़ में,

 

क्या सच, क्या झूठ, सब कुछ मिलाजुला है,

खुद से नहीं, बस इन्हें दुनिया से गिला है,

गलती उनकी भी नहीं है शायद,

परवरिश से ही तो उन्हें ये मिला है,

पछतावा तो शायद मुझे भी है परवरिश से,

निश्छल, निष्कपटता ने बस मुझे ही छला है।

 

साझा करें:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *