ऐ लेखनी! ये हुआ क्या है तुझको,
न जाने तू किस सोच में पड़ी है,
बातें बहुत-सी हैं कहने को, लेकिन,
तू है कि अपनी ही ज़िद पे अड़ी है,
उलझा है जीवन कई उलझनों में,
प्रश्नों की हरदम लगी एक झड़ी है,
भावों की स्याही छलकने को आतुर,
पर तू तो बिलकुल निरुत्तर खड़ी है!
दुःख वेदना या तिरस्कार धोखा,
तुझसे नहीं कुछ छिपा है यहाँ पर,
प्रेम वियोग आशा अभिलाषा,
जीवंत इनसे ही तू तो हुई है,
कभी मन उजाला, कभी है अँधेरा,
मन की दशा बस ये मन जानता है,
सुनकर के बाँटे जो मन की व्यथा को,
साथी कहाँ तेरे जैसा यहाँ है!
ऐ लेखनी! ये हुआ क्या है तुझको,
क्यूं ऐसे मुझसे तू रूठी हुई है,
बहा चल मुझे संग अपने तू फिर से,
मन के समंदर में लहरें बड़ी हैं।